श्रीमंत शंकरदेव : वृहद असमिया समुदाय के वास्तुकार
असम के सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, कलात्मक, और धार्मिक वृतान्तों में शंकरदेव का उच्च एवं महत्वपूर्ण स्थान है। शंकरदेव बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, और वृहद असमिया समाज में उनका योगदान विस्तृत और बहुआयामी था। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, और धार्मिक क्षेत्रों में उनके योगदान से असमिया समाज में साहित्य, कला, और संस्कृति का एक नया युग स्थापित हुआ। शंकरदेव के आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टिकोण, और वैचारिक आदर्श ‘एक-शरण-नाम-धर्म’ के सिद्धांतों के माध्यम से व्यक्त किए गए, जिनका 15वीं शताब्दी की भक्ति परंपरा के दौरान उनके द्वारा प्रचार और प्रसार किया गया थाl
कालिंदी (शंकरदेव की पत्नी) का बिस्तर जो पटबौशी सत्र, बारपेटा, में संरक्षित है
प्रारंभिक जीवन
शंकरदेव का जन्म अक्टूबर 1449 में शिरोमणी (भुइयाओं के अधिपति) परिवार में हुआ थाl उनके पिता कुसुमवार कायस्थ भुइयाँ थे और उनकी माता का नाम सत्यसंधा था। परंतु, उनके माता-पिता के असामयिक निधन के कारण उनका पालन-पोषण उनकी दादी खेरसुती ने किया था। उनका दाखिला एक टोले (स्कूल) में करवाया गया, जहाँ उन्होंने महेंद्र कंडाली के संरक्षण में, अपनी शिक्षा गृहण की और अंततः कई प्राचीन ग्रंथों में महारत हासिल की। अपनी शिक्षा पूरी करने के उपरांत, उन्हें शिरोमणी भुइयाँ का उत्तरदायित्व सौंपा गया l उन्होंने सूर्यवती से विवाह करने के पश्चात अपना गृहस्थ जीवन आरंभ किया, और उनके घर में मनु या हरिप्रिया नामक पुत्री ने जन्म लियाl परंतु, दुर्भाग्यवश उनकी पत्नी का निधन हो गया और उन्हें गहरे दुःख का सामना करना पड़ाl
1481 में, उन्होंने अपनी पहली तीर्थयात्रा की। उन्होंने उत्तर भारत के कई पवित्र स्थानों की यात्रा की, जिससे उनके सामाजिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, और धार्मिक दृष्टिकोण पर गहरा प्रभाव पड़ा। अपनी यात्रा के दौरान, उन्होंने बदरिकाश्रम में अपना पहला बोरगीत रचा। बाद में, उनकी यात्राओं और अनुभवों ने नव-वैष्णव भक्ति सिद्धांत के निर्माण में सहायता की। जगदीश मिश्र द्वारा लिखित भागवत पुराण की संपूर्ण प्रति निकलने के बाद, उनके आध्यात्मिक दृष्टिकोण में एक बड़ा बदलाव आया। इन घटनाओं का शंकरदेव के जीवन और आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर अंततः व्यापक प्रभाव पड़ा। तीर्थयात्रा से लौटने के बाद, शंकरदेव को फिर से शिरोमणी भुइयाँ की ज़िम्मेदारियाँ सौंपी गईं। हालाँकि, इस बार उन्होंने इन्हें अस्वीकार कर दिया और इनके स्थान पर, अपना जीवन पूरी तरह से भक्ति के संदेश के प्रचार-प्रसार की ओर समर्पित कर दियाl अपनी दूसरी शादी (कालिंदी से) के बाद, शंकरदेव ने सक्रिय रूप से भक्ति पंथ का प्रचार किया। 1550 में, उन्होंने एक और तीर्थयात्रा की।
विविध प्रसंगों से भरे अपने लंबे जीवनकाल में, शंकरदेव को राजाओं और समाज के अन्य रूढ़िवादी वर्गों से कई बार विरोध का सामना करना पड़ा, जिन्होंने उनकी नई धार्मिक शिक्षाओं का घनघोर विरोध किया। इसलिए, उन्हें लगातार अपना स्थान बदलना पड़ा। 1568 में, इस महान प्रतिभाशाली व्यक्ति का निधन हो गया।
शंकरदेव का नव-वैष्णव भक्ति परंपराओं पर दार्शनिक और धार्मिक दृष्टिकोण
शंकरदेव द्वारा प्रचारित धर्म और भक्ति परंपरा को ‘एक-शरण-नाम-धर्म’ के रूप में जाना जाता है। इसे ‘महापुरुषीय धर्म’ भी कहा जाता है। ‘एक-शरण-नाम-धर्म’ का मुख्य सिद्धांत केवल एक देवता, विष्णु, की कृष्ण अवतार में पूजा पर आधारित है। शब्द स्वरूप के अनुसार, ‘शरण' शब्द का अर्थ आश्रय या सुरक्षा प्राप्त करना है। इसलिए, ‘एक-शरण-नाम-धर्म’ का सार एक ईश्वर की शरण लेना है। शंकरदेव की शिक्षाएँ और उनके द्वारा प्रचारित धार्मिक सिद्धांत, मुख्य रूप से भागवत-पुराण पर आधारित थे। इसके अतिरिक्त, श्रीमद्भगवद्गीता और वामन-पुराण समेत अन्य धार्मिक ग्रंथों ने भी उनकी शिक्षाओं और भक्ति पंथ की अवधारणा पर अपना एक गहरा प्रभाव डाला |
शंकरदेव का एक प्रमुख उद्देश्य उन सभी बाहरी पहलुओं को हटाना था, जो असम के धार्मिक क्षेत्र का प्रतीक बन गए थे l इसके विपरीत, उन्होंने भक्ति के कुल नौ रूपों में से केवल दो के पालन पर ज़ोर दिया : श्रवण (अनिवार्य रूप से भगवान का नाम सुनना) और कीर्तन (अनिवार्य रूप से भगवान के नाम का जाप करना)। नव-वैष्णव भक्ति परंपराओं के दार्शनिक और आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए, उन्होंने कुछ प्रथाओं और सांस्कृतिक संस्थानों को विकसित किया, जिनमें ‘नामघर’ और ‘सत्र’ शामिल थे, जो सामूहिक प्रार्थनाओं के ऐसे केंद्र थे, जहाँ आंतरिक और बाहरी शुद्धता पर ज़ोर दिया जाता था। ये संस्थान आज भी साहित्य, संगीत, रंगमंच, नृत्य, पांडुलिपि-लेखन, चित्रकला, शिल्प, आदि, को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
कलागुरु बिष्णु प्रसाद राभा द्वारा शंकरदेव की चित्रकारी
धार्मिक दर्शन और आध्यात्मिक दृष्टिकोण की उपयोगिता को यदि समाज के उन पहलुओं के साथ जोड़ा जाए, जिनकी परिकल्पना एक समाज-सुधारक के तौर पर शंकरदेव ने की थी, तो उन्हें बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। शंकरदेव द्वारा प्रचारित भक्ति परंपराओं का एक महत्वपूर्ण पक्ष उनका अंतर्निहित, सार्वभौमिक भाईचारे का संदेश था। इस क्षेत्र के खंडित सामजिक अतीत को देखते हुए, इस पक्ष ने असमिया समाज के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। असम का समाज विषम है, और इसमें विविध धार्मिक संबद्धताओं, जनजातियों, और बहुभाषी समुदायों के लोग शामिल हैं। समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक ताने-बाने में कई गूढ़ अनुष्ठान और मान्यताएँ प्रचलित थीं l ऐसी विभाजनकारी स्थितियों के बीच, शंकरदेव के भक्ति उपदेश ने नव-वैष्णव समुदाय के भीतर अलग-अलग मान्यताओं को एकजुट और एकीकृत करके एक समुदाय के निर्माण में सहायता की। यद्यपि उन्हें समाज के रूढ़िवादी वर्ग के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा, फिर भी शंकरदेव ने अपनी साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से जनता के बीच अपने संदेश को प्रचारित करने का प्रयास जारी रखा।
कीरत कचारी खासी गारो मिरी
यवन कंक गोआल
अहोम मलका राजक तुरुक
कुवाच म्लेच्छ चांडाल
अनो जात नर कृष्ण सेवाकार
संगत पवित्र हय (भागवत 1270/1271)
अनुवाद: कीरत, कचारी, खासी, गारो, मिरी (मिसिंग), यवन, गोआल, असम (अहोम), मलूक, राजक, तुरुक, कुवाच, म्लेच्छ, चांडाल, और अन्य लोग कृष्ण के भक्तों की संगति में पवित्र हो जाते हैं।
कुकुर शृगाल गर्धबरो आत्मा राम
जनिया सवको परी करीबा प्रणाम। (कीर्तन 1823)
यहाँ तक कि कुत्ते, शृगाल, और गधे भी वास्तव में भगवान हैं। यह समझकर उन सभी का आदर और अभिनंदन करें।
अपने समाज सुधार के कार्य में, श्रीमंत शंकरदेव ने लोगों के मतभेदों को मिटाने का महत्वपूर्ण प्रयास किया। उन्होंने ‘नामघरों’ की स्थापना की, जहाँ विभिन्न जातियों और समुदायों के लोग एकत्र होकर श्रवण और कीर्तन में संलग्न हो सकते थे। उनके धार्मिक दर्शन के सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्यों में से एक, नव-वैष्णव व्यवस्था में समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को सम्मिलित, और समायोजित करना था l उन्होंने कई पवित्र वैष्णव पुस्तकों का ब्रजावली में अनुवाद किया और जनता के बीच उनका प्रचार-प्रसार किया l इसके अतिरिक्त उन्होंने रीति रिवाजों, और अनुष्ठानों से जुड़े कर्मकांडों को हटाने का भी प्रयास किया।
साहित्य, कला, और संस्कृति के क्षेत्र में शंकरदेव का योगदान
शंकरदेव द्वारा असमिया समाज को दी गई सबसे महत्वपूर्ण विरासतों में से एक, साहित्य, कला, और संस्कृति के क्षेत्र में थी l उनका योगदान उनके असाधारण साहित्यिक कौशल और योग्यता का एक प्रतिबिंब है। उनकी साहित्यिक रचनाओं में अनुवाद, भक्ति साहित्य, सैद्धांतिक ग्रंथ, भक्ति गीत, संकलन, और रूपांतरण, आदि, शामिल हैं। उन्होंने साहित्य की रचना के लिए ब्रजावली भाषा का प्रयोग किया था l
साँचीपाट पर लिखी गुणमाला की छवि
भागवत-पुराण के धार्मिक सिद्धांत शंकरदेव के सिद्धांतों की नींव थे। उन्होंने भागवत-पुराण की बारह पुस्तकों में से आठ का अनुवाद किया था। सभी अनुवादों में कृष्ण के आरंभिक शिशुकाल और उनकी चंचल लीलाओं से संबंधित, आदि दशम या दसवें खंड का पहला भाग, सबसे लोकप्रिय था। उन्होंने ‘निमि नव सिद्धि संवाद’ की भी रचना की थी, जो भागवत के 11वें अध्याय पर आधारित एक सैद्धांतिक ग्रंथ था। शंकरदेव की सबसे अनोखी कृतियों में से एक ‘गुणमाला’ थी, जिसकी रचना उन्होंने एक ही रात में की थी। इसमें छह कीर्तनों में भागवत-पुराण का सार शामिल है। उनकी शुरुआती रचनाओं में ‘हरिश्चंद्र-उपाख्यान’ और ‘रुक्मिणी हरण काव्य’ भी शामिल हैं। कई विद्वानों का मत है कि शंकरदेव द्वारा रचित ‘कीर्तन-घोष’ उनकी सबसे उत्कृष्ट साहित्यिक कृति है। यह कीर्तन या भक्ति गीतों का एक संग्रह था, जो मुख्य रूप से सामूहिक प्रार्थनाओं के लिए लिखा गया था। यह चार पवित्र ग्रंथों में से एक है और इसे असमिया समुदाय द्वारा अत्यंत पूजनीय माना जाता है। इसके कीर्तनों को ‘नामघरों’ की दैनिक सभाओं के दौरान गाया जाता है। उनकी अन्य रचनाओं में ‘भक्ति प्रदीप’ शामिल है, जिसमें उन्होंने कृष्ण के अलावा अन्य सभी देवताओं की पूजा की निंदा की है। रामायण के उत्तर-कांड का अनुवाद (माधव कंडाली की सप्तकांड रामायण के अतिरिक्त भाग के रूप में जोड़ा गया); भगवान नरनारायण की स्तुति में ‘भातिमास’ (शंकरदेव द्वारा नई प्रकार की कविता जो गुरु या भगवान की स्तुति में गाई जाती है); ‘बोरगीत’ (भक्ति गीत); ‘अंकिय नाट’, आदि, उनकी अन्य रचनाओं में शामिल हैं l
प्रदर्शन कला के क्षेत्र में शंकरदेव का योगदान अद्वितीय है। इनमें अंकिय नाट (नाटक), बोरगीत, भाओना, और सत्रिय नृत्य शैली शामिल हैं।
‘अंकिय नाट’ शंकरदेव द्वारा आरंभ किए गए नाटक हैं, जो नव-वैष्णववाद के सिद्धांतों के प्रचार का माध्यम हैं। ये अनोखी रचनाएँ हैं, जो धार्मिक दर्शन, स्थानीय मनोरंजन शैलियों, और शास्त्रीय संस्कृत नाटकों की तकनीकों को मिश्रित और संयोजित करके बनाई गई हैं। उनका पहला नाट्य प्रदर्शन, ‘चिह्न यात्रा’ था, जिसका मंचन एक चित्रित पृष्ठभूमि में किया गया था। हालाँकि, यह नाटक, जो उन्होंने अपने शुरुआती वर्षों के दौरान लिखा था, अब प्रचलित नहीं है। उन्होंने छह अंकिय नाटों की रचना की थी, जिनमें ‘काली दमन यात्रा’, ‘पत्नी-प्रसाद’, ‘केली गोपाल नाटक’, ‘रुक्मिणी हरण नाट’, ‘पारिजात हरण नाटक’, और ‘श्री राम-विजय नाट’ शामिल हैं। ये नाटक ब्रजावली में रचित थे, और कई वैष्णव ग्रंथों पर आधारित थे। ‘अंकिय नाट’ की एक अनूठी विशेषता यह है, कि ये एकांकी नाटक हैं, जिनमें कोई आंतरिक विभाजन नहीं होते। अंकिय नाट के प्रदर्शन को ‘भाओना’ कहा जाता है, और इन्हें कुछ विशेष अवसरों पर ‘नामघर’ के परिसर में प्रदर्शित किया जाता है। इन्हें सत्रिय नृत्य शैली के साथ भी प्रदर्शित किया जाता है। सत्रिय का आधार शास्त्रीय है, और इसे लय, प्रस्तुतीकरण, और गायन की तकनीकों और नियमों के अनुसार प्रदर्शित किया जाता है।
‘बोरगीत’ या भक्ति गीत शंकरदेव का एक और महत्वपूर्ण योगदान थे। ये शंकरदेव की जीवित परंपराओं और विरासतों में से एक हैं, जिन्हें आज तक लोगों द्वारा गाया जाता है। ब्रजावली में रचित बोरगीत रागों और तालों पर आधारित हैं। बोरगीत संगीत वाद्ययंत्रों के प्रयोग के साथ, मधुर धुनों में गाए जाते हैं। ‘कथा गुरु चरित’ (शंकरदेव और अन्य वैष्णव संतों की जीवनी) के अनुसार, कुल 240 बोरगीत लिखे गए थे।
शंकरदेव का एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान चित्रकला के क्षेत्र में था। उनके चित्रकला कौशल का सबसे पहला उदाहरण ‘चिह्न यात्रा’ नमक नाटक मंचन के दौरान मिला था। ‘वृंदावनी वस्त्र’, कला का एक और महत्वपूर्ण नमूना है, जिससे वे जुड़े थे l यह राजा नरनारायण को भेंट किया गया था। ‘वृंदावनी वस्त्र’ में 180 फ़ीट लंबे कपड़े पर कृष्ण के जीवन के कई दृश्य चित्रित किए गए थे, और प्रत्येक दृश्य का शीर्षक भी दिया गया था l ‘चित्र भागवत’, चित्रकारियों का एक अन्य ऐसा संकलन है, जिसमें भागवत पुराण की दसवीं पुस्तक के चित्रण थे।
वृंदावनी वस्त्र
असमिया समुदाय के धार्मिक और सामाजिक-सांस्कृतिक ढाँचे में शंकरदेव का योगदान अद्वितीय है। नव-वैष्णववाद के प्रचारक के रूप में उनकी भूमिका न केवल असम में, बल्कि पूरे देश की भक्ति परंपराओं के इतिहास में भी महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
बोर्डोवा थान : शंकरदेव द्वारा स्थापित पहला थान
भारत सरकार


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